आँख में भर तो लिया वन
पर यहाँ भी मन नहीं थिर।
आरियों के स्वार्थ से
आदिम दिखे भिड़ते हुए
और तरु की आँख से
आँसू दिखे बहते हुए
चीख सुन थर्रा उठा वन
साँस टूटी तरु गया चिर।
भेड़िए में शक्ल हिटलर
की दिखाई पड़ गई
पीठ पर मेरी तभी
बंदूक भय की गड़ गई
चिथ रही होगी किशोरी
बाघ से छौना गया घिर।
चाह थी खुद को भुला दूँ
कलरवी सुर ताल में
वह कृषक सुगना तभी बन
फड़फड़ाया जाल में
जान लेकर ही गया था
विश्वग्रामी दूत आखिर।